मनुष्य को दुर्गुणों व दुव्र्यसनों सहित अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या सामाजिक परम्पराओं सहित अन्याय व शोषण से रहित मनुष्य-जीवन की रक्षा के लिये सदाचारी विद्वानों, देवत्वधारी पुरुषों सहित वेदज्ञान की भी आवश्यकता होती है। यदि समाज में सच्चे ज्ञानी व परोपकारी मनुष्य न हों तो समाज में अज्ञान की वृद्धि होकर अन्याय, शोषण तथा अपराधों में वृद्धि होना स्वाभाविक होता है। वर्तमान में भी देश व समाज में जो अपराध होते हैं उसका कारण अपराध करने वाले लोगों में सद्ज्ञान की कमी सहित उनकी अनावश्यक महत्वाकांक्षायें होती हैं। समाज में अन्याय का होना व न्याय न मिलना भी मनुष्यों को अपराधी बना सकता है। किसी भी मनुष्य व समाज के तीन प्रमुख शत्रु होते हैं। प्रथम शत्रु अज्ञान कहा जाता है, दूसरा अन्याय तथा तीसरा अभाव कहा जाता है। यदि समाज से अज्ञान को दूर कर दिया जाये तो समाज में अन्याय व अभावों की निवृत्ति में सहायता मिलती है। अज्ञान को दूर करने के लिये वेदों ने समाज में एक वर्ण ब्राह्मण को स्वीकार किया है जिनका कर्तव्य समाज व देश से आध्यात्मिक व सांसारिक विषयों का अज्ञान दूर करना तथा सत्य अध्यात्म व सांसारिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना होता है। ब्राह्मण के मुख्य कर्तव्य भी वेदों का पढ़ना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना व दान लेना होता है। जहां ब्राह्मण सत्य ज्ञान के आदि स्रोत वेदों को प्राप्त होकर उस पर आचरण करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, वही समाज श्रेष्ठ व उत्तम होता है।
अन्याय को दूर करने के लिये वेदों ने क्षत्रिय वर्ण की रचना व उसे वैदिक ज्ञान से युक्त करने का सिद्धान्त दिया है। क्षत्रिय वैदिक गुणों से युक्त तथा शारीरिक बल में अन्य मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होते हैं। उनमें साहस एवं निभीकता भी अन्य मनुष्यों से अधिक होती है। क्षत्रियों में अन्याय को दूर करने की प्रवृत्ति वा तीव्र भावना होती है। इस प्रवृत्ति का विकास भी प्राचीन काल में हमारे गुरुकुलों के आचार्य किया करते थे। समाज में ऐसे क्षत्रियों के पर्याप्त संख्या में होने से वहां अपराध व अन्याय नहीं होता। यदि कोई करता है तो उसे कठोर दण्ड मिलता है। क्षत्रिय का कर्तव्य समाज व देश की रक्षा करना भी होता है। विदेशी शत्रुओं सहित क्षत्रिय आन्तरिक अपराधियों से भी देशवासियों की रक्षा करते हैं और उनके अपराध के अनुसार दण्ड देकर समाज को नियमों में रखते हैं जिससे समाज में सभी ओर सुख व शान्ति का वातावरण रहता है। अभाव भी मनुष्य समाज का एक शत्रु होता है। अभाव हो तो मनुष्य अपना जीवन भली प्रकार से शान्तिपूर्वक नहीं जी सकता। जीवन जीने के लिये उसे अन्न, वस्त्र, चिकित्सा तथा आवास आदि की आवश्यकता होती है। इनके अभाव में वह जीवित नहीं रह सकता। इन आवश्यकताओं की पूर्ति जिस मनुष्य समुदाय द्वारा की जाती है, वैदिक व्यवस्था में उसे वैश्य वा वैश्य वर्ण का नाम दिया गया है। यदि मनुष्य को उसकी बुद्धि के अनुसार आध्यात्मिक व सांसारिक ज्ञान मिल जाये, उसे पूर्ण सुरक्षा व न्याय मिले तथा उसके जीवन में किसी आवश्यक वस्तु का अभाव न हो तो यह स्थिति देश व समाज के लिए सुख व सन्तोष की स्थिति होती है। अतः वेद मनुष्य को ज्ञान, रक्षा तथा अभावों से पूर्णरूपेण सुरक्षित व निश्चिन्त करते हैं। ऐसा होने पर ही मानवता की रक्षा व उसका उन्नत रूप उपस्थित होता है। वैदिक काल के यशस्वी राजा अपने राज्यों में अपनी प्रजाओं पर वर्णव्यवस्था को आदर्श स्थिति में चलाकर जनता को सुख व शान्ति का जीवन प्रदान करते थे। इसी का समर्थन व प्रचार वेदों के ऋषि, आर्यसमाज के संस्थापक तथा योगेश्वर दयानन्द ने अपने जीवनकाल 1825-1883 तथा कार्यकाल 1863-1883 में किया जिससे समाज की उन्नति होकर देश ने ज्ञान विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में उन्नति की।
वेदों के स्वरूप तथा महत्व के विषय में देश व समाज को यथोचित ज्ञान नहीं है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद ज्ञान की पुस्तकें हैं। वेदों में सब सत्य विद्यायें हैं। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दस्वरूप तथा सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर से चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को उनकी आत्माओं में सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा से प्राप्त हुआ था। वेदों में उन मानवीय सभी गुणों का वर्णन है जिसे मनुष्य जान सकता है तथा अपने जीवन वा आचरण में धारण कर सकता है। वेदों में वर्णित सद्गुणों को धारण कर ही मनुष्य सच्चा मानव बनता है। मनुष्य को सत्य जानना व बोलना चाहिये। उसे ज्ञान प्राप्ति के लिये वेदाध्ययन सहित ज्ञानी पुरुषों की संगति करनी चाहिये। मनुष्यों के जीवन को सुखी बनाने के लिये उसे अध्ययन व शोध कर मनुष्य की आवश्यकताओं के सभी साधनों, उपकरणों व संयंत्रों का विकास करना चाहिये जिससे सुगमतापूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने में सफल हो सके। वेदों में गो का भी महिमागान मिलता है। गो पालन, गोदुग्ध व दुग्ध से बने पदार्थों से बने दही, छाछ, मक्खन व घृत आदि से मनुष्य को अनेकानेक लाभ होते हैं। वेद मनुष्यों को शुद्ध शाकाहारी भोजन करने की प्रेरणा देते हैं। वेदों का अध्ययन कर मनुष्य सत्य कर्मों को करता तथा समस्त असत्य कर्मों, कार्यों व व्यवहार को छोड़ देता है। वह ईश्वरोपासना कर ईश्वर से ज्ञान व शक्ति को प्राप्त करता है। उसे सद्कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। वह अग्निहोत्र आदि कर्मों को करके नित्य प्रति वायु व वर्षा जल की शुद्धि करना अपना कर्तव्य समझता है व करता भी है।
वेद मनुष्य को कृषि करने की भी प्रेरणा करते हैं। प्राचीन काल में वेदों की शिक्षा के आधार पर ही सभी लोग गोपालन व गोसेवा को अपना कर्तव्य मानकर करते थे। आज भी इन सब कार्यों की उपयोगिता व महत्ता है। वेदाध्ययन करने से मनुष्य को जीवन में सत्य के धारण सहित अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने की शिक्षा मिलती है। अन्य मनुष्यों व समुदायों के प्रति द्वेष को छोड़ने की शिक्षा भी वेद देते हैं। वेद मनुष्य को ईश्वर को प्राप्त करने व उसका साक्षात्कार करने की प्रेरणा देते हैं और इसके लिये वह ईश्वरोपासना व योगाभ्यास करने की शिक्षा करते हैं। वेद प्रेरणा करते हैं कि किसी भी मनुष्य व इतर प्राणी को अकारण दुःख न दो और दूसरे दुःखी मनुष्यों व प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनके दुःख दूर करने की प्रेरणा भी वेदों से मिलती है। वेद मनुष्य को अपरिग्रही बनाते हैं। वेद ऋत, मित तथा हितभुक होने की शिक्षा भी देते हैं। ऐसा करके ही मनुष्य स्वस्थ रहकर दीर्घजीवी हो सकता है। वेदों की शिक्षा है कि मनुष्य को अपनी उन्नति में ही सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। वर्तमान में यह नियम देश व समाज में देखने को नहीं मिलता। सभी अपनी-अपनी उन्नति की ओर ध्यान देते हैं। इसी से सामाजिक असन्तुलन उत्पन्न होने के कारण अनेक सामाजिक बुराईयों ने जन्म लिया है। वेद मनुष्य को पांच यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह सहित पांच नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं अपरिग्रह के पालन की भी शिक्षा देते हैं। इन यम व नियमों से भी आदर्श मनुष्य का निर्माण होता है। यदि गम्भीरता से विचार किया जाये तो वैदिक जीवन ही संसार में प्रचलित सभी जीवन पद्धतियों से श्रेष्ठ जीवन सिद्ध होता है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से 1.96 अरब वर्षों से भी अधिक समय तक विश्व में वेदों के अनुसार ही लोग जीवन व्यतीत करते रहे। संसार के श्रेष्ठ महापुरुष राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य तथा सभी ऋषि, मुनि व योगी भी वैदिक जीवन ही व्यतीत करते थे और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति किया करते थे। वैदिक जीवन जीने से मनुष्य दीर्घजीवी होते हैं यह ज्ञान व विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है।
आज भी वेदों से शिक्षा लेकर समाज में विद्यमान सभी प्रकार की कमियों को दूर किया जा सकता है। वेद मानवता के प्रसारक आदर्श ग्रन्थ हैं जिससे मनुष्य की आत्मा व शरीर का पूर्ण विकास व उन्नति होती है। वेद अन्य साम्प्रदायिक ग्रन्थों की तरह किसी एक समुदाय की उन्नति की इच्छा रखने वाले साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है अपितु यह मानव मात्र के कल्याण की इच्छा रखता है और उसका समाधान भी प्रस्तुत करता है। वेदों के अध्ययन व आचरण से मनुष्य सच्चा मनुष्य बनता है तथा वह ईश्वर भक्त व समाज भक्त होने के साथ अज्ञान, अन्याय, शोषण व सामाजिक विषमता से दूर रहकर इन बुराईयों को देश व समाज से दूर करता है। ऋषि दयानन्द मानवता के उत्थान व सुधार के लिये ही वेद प्रचार किया था। उन्होंने कहा था कि सबको वेदों को पढ़ना व पढ़ाना चाहिये और सबको वेदों के उपदेशों को श्रवण करने के साथ दूसरों को भी वेदोपदेश करना चाहिये। इसी विधि से मानवता की उन्नति होगी तथा राक्षसी व पैशाचिक शक्तियों पर अंकुश लग सकता है। निष्कर्ष यह है वेदों की रक्षा व इसके सत्य अर्थों के प्रचार व उसके आचरण से ही विश्व में मानवता को सुरक्षित रखते हुए स्थायीत्व प्रदान किया जा सकता है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य