यात्राएं हमेशा रुचिकर होती हैं. उनका अपना लोक, चरित्र और व्यवहार होता है. यात्रा अपरिचय को परिचय में बदलती है, अज्ञात को ज्ञात में. यायावरी का यही गुण लेखक तथा उसके लेखन को समृद्ध करता है, उसे पैना बनाता है. उद्देश्यपूर्ण यात्राएं सदैव सार्थक सर्जन का आह्वान करती हैं. चलने से चेतना और बहने से पानी निर्मल होता है. कल्पना के पंखों पर सवार मन जाने कहां-कहां उड़ता फिरता है. अगर कोलंबस, वास्कोडिगामा, मेगास्थनीज आदि ने यात्राएं न की होतीं तो अमेरिका को कौन जानता? अमृतलाल वेगड़ जी ने नर्मदा यात्रा न की होती तो क्या यात्रा-साहित्य नर्मदा माई की अविरलता और प्रवाहशीलता से परिचित हो पाता?
यात्राओं ने हमेशा साहित्य, समाज, संस्कृति और वैचारिकी को मांजा है, पुष्ट तथा समृद्ध किया है. पैरों में पंख बांधकर उड़ते रामवृक्ष बेनीपुरी हों या यायावरी को याद करते अज्ञेय, ‘अजंता की ओर’ संघबद्ध कला-कलाप को निहारते जानकी वल्लभ शास्त्री और ‘स्मरण को पाथेय बनने दो’ की पुकार लगाते विष्णुकांत शास्त्री, सभी ने अपनी यात्राओं में जीवन के नए सूत्रों को खोजा.
लेखक यात्रा के सहारे इतिहास की कथाओं के कई रास्ते खोलते हुए चलता है. समाज, संस्कृति और अतीत की तह तक पहुंचने का यत्न करता है. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यापक और पत्रकार लोकेन्द्र सिंह ने कुछ यही प्रयत्न अपनी पुस्तक ‘हिंदवी स्वराज्य दर्शन’ के माध्यम से किया है. अपनी यात्रा के दौरान वह इतिहास की ऊँगली थामे उन दुर्गों तक पहुँचते हैं, जहाँ छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य के, हिन्दवी स्वराज्य के उनके संकल्प के और भारतीय गौरव के चिह्न अक्षुण्ण हैं.
अज्ञेय कहते हैं कि ज्ञान-वृद्धि और अनुभव-संचय के लिए देशाटन उपयोगी है. हिंदवी स्वराज्य दर्शन हमें एक दृष्टि और दिशा देती है. पन्ने दर पन्ने, अध्याय दर अध्याय, पड़ाव दर पड़ाव नई परतें खुलती जाती हैं. दुर्गम रास्तों और कई पड़ावों से गुजरते हुए यह यात्रा अतीत के समृद्ध विरासत तक हमें लेकर जाती है. इसमें प्रकृति के विराट बिंब खिंचे हैं. शैल-शिखरों से घिरी रमणीक उपत्यका का वर्णन है तो साथ ही सघन अरण्यों के बीच से झांकते अडिग और अजेय दुर्ग की शौर्यगाथा भी.
सिंहगढ़ दुर्ग से प्रारंभ यात्रा में अनेक मंदिर, रमणीय स्थल हमें मिलते हैं, साथ ही लोकमान्य तिलक और सुभाष चंद्र बोस सरीखे वीर क्रांतिकारी भी हमारी स्मृतियों में झांकते हैं. तानाजी महाराज का पराक्रम और बलिदान हमें उद्वेलित करता है, वो हिन्दवी स्वराज्य की नौसेना के पराक्रम का साक्षी कोलाबा जलदुर्ग हमें विस्मित करता है. लाल महल के कोने-कोने से शिवाजी महाराज का बचपन हमें उत्साहित करता है, तो वहीं रायरेशवर और दुर्गदुर्गेश्वर रायगढ़ हिंदवी स्वराज्य की स्थापना का उद्घोष भरता है.
सचमुच हिंदवी स्वराज्य के दुर्ग एक जीवंत यात्रा हैं, साक्षात् क्रांति पुरुष हैं. जो आज भी भारत, भारतीयता और हमारी अस्मिता को नव ऊर्जा, नव प्रकाश दे रहे हैं. विद्वजनों तथा विचारकों ने नागरिकों में देश के सांस्कृतिक गौरव के प्रति अभिमान उत्पन्न करने, आत्मगौरव का भाव जाग्रत करने और गौरवशाली इतिहास से परिचित कराने के लिए हमेशा साहित्य का सहारा लिया. इन्हीं उद्देश्यों को लक्षित कर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ और ‘जगद्गुरू शंकराचार्य’ जैसी कृतियों की रचना की, उन्हें आकार दिया. राष्ट्रीयता के भाव को पोषित करती हिंदवी स्वराज्य दर्शन पुस्तक भी इसी दृष्टि और विचार की परिचायक है.
प्रामाणिकता तथा रोचकता से परिपूर्ण पुस्तक इतिहास को, स्वराज्य के लिए हुए संघर्ष और बलिदान को निकटता से जानने-समझने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. एक प्रकार से यह पुस्तक समृद्ध अतीत का सिंहावलोकन का अवसर हमें देती है और अपनी इस अद्वितीय विरासत को बचाने का आग्रह भी करती है.
हिंदवी स्वराज्य से संबंधित महत्वपूर्ण स्थानों, व्यक्तियों, घटनाक्रमों की जानकारी देती यह पुस्तक प्रभावाभिव्यंजक और पठनीय है. जो भारत के इतिहास, संस्कृति और युद्ध तथा वास्तु कला कौशल से हमें परिचित कराती है और भारत के लोक-मन की आंतरिकता के उद्घाटन तथा गौरवबोध के जागरण में भी समर्थ सिद्ध होती है. यात्रा के वैचारिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक पक्ष को मथकर लेखक ने पाठकों को अतीत के आत्मगौरव का नवनीत दिया है. भावों की तेजस्विता, भाषा के लालित्य और कथा के प्रवाह ने पुस्तक को रोचक भी बनाया, साथ ही ग्रहणीय तथा संग्रहणीय भी. निश्चय ही ‘हिंदवी स्वराज्य दुर्ग’ के रुप में एक अमूल्य निधि पाठकों के हाथ लगी है.
पुरु शर्मा