
दक्षिणी राजस्थान – शांत क्षेत्र में वाम प्रेरित पृथकतावादी विचारों की आहट
डॉ. अवनीश
देश में लम्बे समय से जनजातियों को हिन्दुओं से अलग बताकर न केवल मिथ्या प्रचार किया गया, बल्कि केवल काल्पनिक आधारों पर देश में अलगाववाद और अराजकता के बीज अंकुरित कर राजनीतिक फसल भी खूब काटी गई. देश के बड़े भूभाग में फैले नक्सल आन्दोलन का जन्म भी शेष समाज से पृथकता की ऐसी ही भावना से पनपा जो आज तक हजारों निरीह लोगों के प्राण ले चुका है.
सामान्य तौर पर शांत दक्षिणी राजस्थान में इसके प्रमाण स्पष्ट देखने में आ रहे हैं. जहां जनजाति समाज बाहुल्य क्षेत्रों के सामाजिक सौहार्द को राजनीतिक महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहा है. समाज में अलगाव और असंतोष उत्पन्न करने के लिए पहले आर्यों को विदेशी आक्रांता साबित करने का प्रयास किया गया और फिर उनके द्वारा शोषण किए जाने की पटकथा लिखी गई. किन्तु जब भारतीय पुरातत्व विभाग ने हरियाणा के राखीगढ़ी में उत्खनन से जुड़े प्रमाणों द्वारा तथाकथित आर्यों के बाहर से आने के सिद्धांत को ही ख़ारिज कर दिया तो अलगाव की राजनीति करने वालों के कलेजे पर सांप लोट गया.
इस विशुद्ध वैज्ञानिक और तथ्यपरक खोज ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय चाहे उसे आर्य कहें या द्रविड़ या कोई अन्य जातिसमूह सभी यहां के मूलनिवासी हैं. जिनके पूर्वजों ने बीते पांच हजार से अधिक वर्षों में विश्व की प्राचीनतम एवं श्रेष्ठतम सभ्यता के निर्माण में योगदान किया. यद्यपि आज पूरी दुनिया यह बात स्वीकार चुकी है, फिर भी कुछ संगठन अपने भ्रामक प्रचार द्वारा ‘आर्य’ जैसे गुणवाचक शब्द को जाति वाचक बताकर समाज में विष वमन का निरंतर प्रयास कर रहे हैं.
एक ओर भील, मीणा समाज की परम्पराओं और रंग रूप जैसी विशेषताओं के आधार पर शेष समाज से अलग होना प्रचारित किया गया. दूसरी ओर इस वास्तविकता पर पर्दा डाल दिया गया कि देश में निवासरत सात सौ चार जनजातियों की ही नहीं, वरन् अन्य अनेक जातियों की भी सभी परम्पराएं एक जैसी नहीं हैं. आश्चर्य तो यह है कि विविधतायुक्त समाज की दुहाई देते प्रबुद्ध वर्ग भी वन क्षेत्र के निवासियों की भिन्न भिन्न परम्पराओं को स्वीकारने से कतराते हैं. वास्तव में विपरीत मत को सम्मान और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के विचार को जितना भारतीयों एवं विशेषकर सनातन परम्परा ने अंगीकार किया, उसका उदाहरण दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता. किन्तु भारतीय समाज की यही विशेषता अलगाव के समर्थकों के लिए किसी हथियार से कम नहीं है.
आज से लगभग चार सौ पीढ़ियों पहले जब सभी के पूर्वज वननिवासी थे, उसके पश्चात विकास के साथ किसी ने वनों को अपना आश्रय स्थल चुना तो किसी ने नगरों में रहना पसंद किया होगा. आज के जनजाति समाज के पूर्वजों ने संभवतः वनों में रहकर अपनी शुद्धता बनाए रखी तो आज तक उनकी शारीरिक संरचना, रंग रूप, परंपरा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, लेकिन पृथकतावादी / नक्सल संगठनों ने इस विशिष्टता को भी उनके शेष समाज से भिन्न होने के प्रमाण के रूप में प्रचारित किया. वैसे बदलाव तो आज उन वनवासियों में भी उत्पन्न हो गया जो वनों को छोड़ कस्बों और फिर नगरों में बस गए अथवा किसी अच्छे पद पर आसीन हो गए, किन्तु इस आधार पर क्या कोई स्वीकार करेगा कि उनका डीएनए शेष समाज से अलग हो गया? फिर जनजाति के लोग अपने सनातन समाज से अलग कैसे हो सकते हैं? ऐसे विचारों का आधार कपोल कल्पना से ज्यादा प्रतीत नहीं होता. निश्चित ही उनमें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विभिन्नताएं हो सकती हैं, परन्तु समस्त भारतीय समाज के पूर्वजों की जन्मभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि भारत ही है और विशेषकर वनवासी तो सनातन समाज के तीन मूल मतों जैसे शैव, शाक्य और वैष्णव में से एक शैव परंपरा के दृढ़ प्रकृति उपासक रहे हैं. फिर उन्हें सनातन संस्कृति से विलग करना कैसे संभव है?
यह तथ्य निर्विवादित है कि अंग्रेज जहां भी गए सबसे पहले उन्होंने वहां के मूल निवासियों को मार कर समाप्त कर दिया. चाहे वह अमेरिका के रेड इंडियन हों अथवा ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की मूल प्रजातियां, वे आज या तो समाप्त हो चुकी हैं अथवा समाप्ति के कगार पर हैं. इसलिए यह मान लिया गया कि ऐसे ही कभी काल्पनिक जाति आर्यों ने भी भारत पर आक्रमण कर यहां के मूल निवासियों अथवा आदिवासियों को वनों में धकेल अपना शासन एवं पंथ स्थापित कर दिया होगा. ऐसी मान्यता की स्थापना के पीछे अंग्रेजों ने यह धारणा विकसित करने का प्रयास किया कि जब आर्य बाहर से आकर भारत भूमि पर शासन कर सकते हैं तो अंग्रेज क्यों नहीं? फिर भविष्य में इसी आधार पर मुग़ल शासन के औचित्य को भी सही ठहराया गया. किन्तु आज भी सामाजिक वैमनस्य उत्पन्न कर शासन करने के प्रयास भारत भूमि पर जगह जगह देखे जा सकते हैं. पृथकतावादी शक्तियां जनजाति बनाम नगरीय की राजनीति इन्हीं आधारों पर आज भी कर रही हैं.
कुछ राजनीतिक संगठनों व अभारतीय विचार के स्वार्थी समूह द्वारा मेवाड़ वागड़ कांठल में प्रचलित अभिवादन ‘जय राम’ के स्थान पर ‘जय जोहार’ बोलने को कहा जा रहा है. जो अभिवादन इस क्षेत्र के समाज की परम्पराओं का कभी हिस्सा नहीं रहा है, उसे थोपने का पुरजोर प्रयास हो रहा है. पहली दृष्टि में यह राजनीतिक संज्ञा केवल उस पुराने अलगाव उपजाने के सिद्धांत का एक सूत्र प्रतीत होती है जो एक समाज की दूसरे के साथ टकराव एवं वैमनस्य उत्पन्न करना चाहती है, अन्यथा गोविन्द गुरु की भक्ति परम्पराओं का अनुसरण करते जनजातियों के मध्य छोटा नागपुर क्षेत्र के लोगों द्वारा बोले जाने वाले ‘जय जोहार’ शब्द का कोई औचित्य ही कहां है?
इसी प्रकार जनगणना के समय अलग धर्म कोड की मांग भी बड़े षड्यंत्र की ओर संकेत करती है. मांग की जा रही है कि इस क्षेत्र का धर्म हिन्दू नहीं बल्कि आदिवासी है. इसलिए उन्हें जनगणना में पृथक धर्म कोड दिया जाए. ऐसा कहने वालों की चाहे जो महत्वाकांक्षा हो, पर ऐसा करना करोड़ों वनवासियों की सदियों से चली आ रही उपासना पद्धतियों, मान्यताओं और परम्पराओं के साथ क्रूर मजाक होगा. संभवतः इसे जनजाति समाज स्वयं भी स्वीकार नहीं करे क्योंकि वर्ष 2011 में हुई जनगणना के अनुसार देश की 10.5 करोड़ जनजाति संख्या में से 8 करोड़ लोगों ने स्वयं को हिन्दू कहा है. अतः ऐसी मांग का कोई तार्किक आधार तो नहीं है, किन्तु इसमें निहित लक्ष्य जनजातियों के धर्म की वास्तविक पहचान पर पर्दा डालकर कालांतर में उन्हें मतान्तरण का आसानी से शिकार बनाया जा सकता है.
वास्तविकता यह है कि प्रकृति पूजक समाज की मान्यताओं में बलात परिवर्तन का किसी को अधिकार नहीं है. अतः दशकों से भील समाज के साथ जो षड्यंत्र हो रहे हैं, उसे समझने एवं सामूहिक प्रतिकार करने की आवश्यकता है. अन्यथा वाम प्रेरित पृथकतावादी विचार न सिर्फ जनजाति समाज के भविष्य के लिये वरन् वृहत भारतीय समाज व भारत के लिए भी एक विशाल चुनौती सिद्ध हो सकते हैं.