अल्जीरियाई मूल के नाहेल फ्रेंच पुलिसकर्मी के हाथों मारे जाने की घटना को नस्लभेदी रूप दिया जा रहा है। नस्लभेद फ्रांस में एक संवेदनशील मुद्दा है। फ्रांस की जनसंख्या में 9 फीसदी यानी करीब 55 लाख मुसलमान हैं। इनमें से ज़्यादातर अल्जीरियाई मूल के अरब मुसलमान हैं।
फ्रांस के अलग-अलग शहरों में पिछले एक हफ्ते से दंगे हो रहें हैं। 27 जून को पेरिस के नज़दीक स्थित नान्तरे शहर में फ्रेंच पुलिस ने 17 वर्षीय नाहेल को सिग्नल पर गाड़ी न रोकने के कारण गोली मारी। इसमें नाहेल की मृत्यु हुई। नाहेल के मृत्यु की ख़बर फैलते ही पेरिस में दंगे भड़क गए। पेरिस में शुरू हुए दंगे फ्रांस के अन्य शहरों में जैसे ल्योन और मार्सेल में भी फ़ैल गए। दंगाई पुलिसकर्मियों पर हमले कर रहे हैं और आगज़नी की घटनाओं को भी अंजाम दे रहे हैं। दंगाइयों ने मार्सेल में सबसे बड़ी लाइब्रेरी को आग के हवाले कर दिया। इन दंगों के मामले में अब तक करीब 1500 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। दंगों पर काबू पाने के लिए 45000 पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया है।
नस्लभेदी घटना होने का आरोप
अल्जीरियाई मूल के नाहेल फ्रेंच पुलिसकर्मी के हाथों मारे जाने की घटना को नस्लभेदी रूप दिया जा रहा है। नस्लभेद फ्रांस में एक संवेदनशील मुद्दा है। फ्रांस की जनसंख्या में 9 फीसदी यानी करीब 55 लाख मुसलमान हैं। इनमें से ज़्यादातर अल्जीरियाई मूल के अरब मुसलमान हैं। अल्जीरिया के अलावा मोरक्को और ट्यूनिशिआ से भी बड़ी संख्या में मुसलमान फ्रांस में आए हैं। फ्रांस सरकार और पुलिस पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नस्लभेद के आरोप हमेशा लगते आ रहे हैं। इसी वजह से मुसलमानों और फ्रांस सरकार के बीच टकराव भी चलता आ रहा है। नाहेल की मौत भी इसी वजह से नस्लभेदी घटना बताई जा रही है। लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि यह मामला कानून व्यवस्था और न्याय से जुड़ा हुआ है। नाहेल की मौत की वजह पुलिस को मिलने वाले अधिकार हैं जिसमें गोली चलाने की छूट आसानी से मिलती है।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रॉन और उनकी पार्टी एन मार्च सेंट्रिस्ट विचारधारा के माने जाते हैं। वहीं मरीन ल पेन के नेतृत्व वाली पार्टी नैशनल रैली दक्षिणपंथी विचारधारा की है। फ्रांस में दक्षिणपंथियों का सामना करने के लिए मैक्रॉन ने पिछले कुछ सालों में इस्लामीकरण पर सख़्त कदम उठाए हैं। लेकिन एक तरफ अपनी पार्टी की विचारधारा और दूसरी तरफ दक्षिणपंथियों का दबाव, इस बीच मैक्रॉन की नीतियों में कभी कभी स्पष्टता की कमी नजर आती है।
फिलहाल फ्रांस के हालातों के लिए भी मैक्रॉन को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। दंगों की गंभीरता को देखते हुए फ्रांस में गृहयुद्ध हैसे हालत पैदा होने की आशंका भी जताई जा रही है।
क्या दो साल पहले मिली थी गृहयुद्ध की चेतावनी?
2021 में फ्रेंच सेना के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों ने फ्रांस में बढ़ती हिंसा और तेज़ी से फैलते इस्लामी कट्टरवाद पर चिंता ज़ाहिर की थी। इसके कुछ ही दिनों बाद फ्रेंच सेना में सक्रिय कुछ सैनिकों ने भी इसी तरह की चिंता ज़ाहिर की थी। इन हालातों को देखते हुए दोनों ने ही फ्रांस में गृहयुद्ध होने ही संभावना बताई थी। इनमें से कुछ सैनिक माली, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य आफ्रिकी गणराज्य में तैनात थे। बाद में इन्हीं सैनिकों को फ्रांस की सड़कों पर भी इस्लामी कट्टरवादियों का सामना करने के लिए तैनात किया था।
हालाँकि 2022 के चुनाव से पहले किए गए इन बयानों को फ्रांस की सरकार ने दक्षिणपंथी पक्षों का प्रचार बताया। लेकिन इस चेतावनी को पूरी तरह से बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसी समय में फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रॉन पर फ्रांस में लगातार बढ़ रहे आतंकवादी ख़तरे से निपटने में नाकामी की वजह से दबाव था।
वर्तमान में चल रही हिंसा को लेकर फ्रांस के प्रमुख पुलिस संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि फ्रांस फिलहाल गृहयुद्ध की स्थिति में है। पुलिस संघ ने दंगाईयों से शांति की अपील करने की बजाय सख़्ती से निपटने की बात कही है। पुलिस के बयानों से कुछ हद तक सरकार के रवैये के प्रति नाराज़गी भी ज़ाहिर होती है। जहां एक तरफ दंगे बेकाबू हो रहें हो वहां पुलिस और सरकार के बीच तालमेल की कमी दंगाइयों के लिए फायदेमंद साबित हो रही है।
यूरोप के अन्य देश भी नहीं हैं अछूते
फ्रांस की घटना को पूरे यूरोप की समस्या का प्रतीक कहा जा सकता है। इस्लामीकरण और लोकतांत्रिक तथा उदार मूल्यों के बीच का संघर्ष यूरोप के कई देशों में है। उदारवादी विचारधारा वाले यूरोपीय देश जैसे फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम, ब्रिटेन और स्पेन ने कई वर्षों तक मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका से आए शरणार्थियों को अपने देशों में बसाया। इनमें से ज़्यादातर शरणार्थी इराक, सीरिया, लीबिया, अल्जीरिया, ट्यूनिशिआ और मोरक्को से आए हुए हैं।
लेकिन पिछले करीब एक दशक से इन लोगों में चरमपंथी विचारधारा तेज़ी से फैल रही है। मध्य पूर्व में इस्लामिक स्टेट का आतंक फैलने बाद यूरोप में भी मुसलमानों के बीच कट्टरता बढ़ने लगी है। इसका परिणाम कई यूरोपीय देशों में बढ़ते हुए आतंकी हमलों के रूप में देखा जा सकता है। आम तौर पर शांत और स्थिर समझे जाने वाले यूरोप में पिछले कुछ वर्षों में कई आतंकी हमले और हिंसक घटनाएं हुई हैं। फ्रांस में हुई इस घटना की प्रतिक्रिया अब फ्रांस के बाहर भी दिखाई दे रही है। बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में भी नाहेल की मृत्यु के ख़िलाफ़ हिंसक प्रदर्शन हुए।
शरणार्थियों को लेकर यूरोप के देशों के आपस में भी टकराव सामने आने लगे हैं। इस्लामीकरण के विरोध में पोलैंड और हंगरी जैसे देश यूरोपीय संघ की नीतियों के ख़िलाफ़ जाकर मुसलमान शरणार्थियों को अपने देश में लेने से इंकार कर चुके हैं।
लेकिन शरणार्थी अब केवल यूरोप का अंदरूनी मामला नहीं है। यूरोप के पड़ोसी इस्लामी देश जैसे तुर्की, लीबिया और मोरक्को शरणार्थियों का हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। आर्थिक संकट का सामना कर रहे ये देश शरणार्थियों को यूरोप में न भेजने के बदले में यूरोप से आर्थिक मदद की अपेक्षा रखते हैं।
वर्तमान में फ्रांस में चल रहे दंगे भले ही गृहयुद्ध की तरफ न जाएं। लेकिन इस्लामीकरण एक वास्तविकता है जो फ्रांस और यूरोप के लिए एक जटिल समस्या बन गई है। कट्टरवाद पर काबू न पाने की एक वजह यह भी है कि इस समस्या के बढ़ने के साथ-साथ यूरोप के कई देशों में वामपंथी या उसके नज़दीक जाने वाली विचारधारा की सरकार थी। लेकिन अब यह रूख बदल रहा है। इटली और ग्रीस में दक्षिणपंथी पक्षों की सरकार है। इसी महीने स्पेन में आम चुनाव होने वाले हैं जिसमें ओपिनयन पोल के मुताबिक दक्षिणपंथी पॉप्युलर पार्टी का प्रदर्शन अच्छा होने की उम्मीद है।
लगातार चल रही अस्थिरता के लिए कुछ हद तक यूरोप की अपनी नीतियां ही ज़िम्मेदार हैं। अमेरिका का करीबी होने की वजह से यूरोपीय देशों ने नाटो के ज़रिये और अमेरिका के साथ कई मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीकी देशों में सैन्य कार्रवाई में हिस्सा लिया है। इस समस्या का समाधान खोजने के लिए यूरोप को सुरक्षा और सामरिक मामलों में स्वतंत्र विचार करने की ज़रुरत है। यूरोप को अपनी समस्याएं सुलझाने पर ध्यान देने की ज़्यादा जरूरत है। अगर बढ़ते इस्लामीकरण को रोका न गया तो फ्रेंच सैनिकों की चेतावनी सही साबित हो सकती है और फ्रांस समेत यूरोप के अन्य देशों में भी गृहयुद्ध जैसे हालत पैदा हो सकते हैं।
फोटो दैनिक भास्कर से साभार