‘स्वदेश’ ने श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग पर अपने संपादकीय में प्रयोग किया. ‘स्वदेश’ ने 23 जनवरी, 2024 के संस्करण में संपादकीय के स्थान पर ‘रामलला’ का चित्र प्रकाशित किया. यह अनूठा प्रयोग है. भारतीय पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा प्रयोग कभी नहीं हुआ. यह पहली बार है, जब संपादकीय में शब्दों का स्थान एक चित्र ने लिया. वैसे भी कहा जाता है कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है. परंतु, स्वदेश ने संपादकीय पर जो चित्र प्रकाशित किया, उसकी महिमा हजार शब्दों से कहीं अधिक है. यह कोई साधारण चित्र नहीं है. इस चित्र में तो समूची सृष्टि समाई हुई है. यह तो संसार का सार है.
भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने भव्य मंदिर में रामलला के आगमन पर समूचा देश जिस प्रकार रामत्व के रंग में रंगा था, उसको शब्दों से अभिव्यक्त करना स्वयं राम के वश की है. राम की उमंग को बस अनुभव ही किया जा सकता है. जिस क्षण के लिए कोई माँ वर्षों से मौन साधकर तपस्या कर रही थी, जिनके दर्शन के लिए भारत के सुदूर छोर से लोग पैदल ही अयोध्या धाम चले आ रहे हों, जिनके प्रथम दर्शन को अपने कैमरे से विश्वभर में फैले रामभक्तों को पहुंचाने के महान कार्य को सम्पादित करने वाले कैमरामैन की आँखों से भावनाओं की धारा बह निकली हो, जिनके प्राकट्य का अवसर सम्मुख देखकर आंदोलन को ओज देने वाली साध्वियां बिलख पड़ी हों, उन रघुवर के प्राण-प्रतिष्ठा के प्रसंग का कैसे वर्णन किया जाए? इस दुविधा का उत्तम समाधान स्वयं रघुवर ही हो सकते हैं. अपने रामलला को ‘ठुमक चलत’ देख बाबा तुलसीदास ने बहुत सुंदर भजन लिखा. उसमें जब रामलला के रूप का वर्णन करने का प्रसंग आया, तब माँ सरस्वती के वरदपुत्र तुलसीदास की ‘शब्दों की झोली’ खाली हो गई. चंद्रमा, कमल, गुलाब, हिरण इत्यादि रूपकों का सहारा बनाने की बजाय स्वयं रामलला को ही रूपक बना लेना, उन्हें उचित जान पड़ा –
तुलसीदास अति आनंद देख के मुखारविंद..
रघुवर छबि के समान रघुवर छबि बनियां….
प्रतिज्ञा, प्रतीक्षा, प्रतिष्ठा पूर्ण होने के प्रसंग और श्रीराम जन्मभूमि से अखिल ब्रह्मांड में रामत्व के उद्घोष को शब्दों से वर्णित करने के स्थान पर रामलला के विग्रह के चित्र से उसका बखान करने का उचित ही निर्णय ‘स्वदेश’ ने लिया. संपादकीय को समाचार पत्र की अभिव्यक्ति कहा जाता है. समाचार पत्र में यह ऐसा स्थान होता है, जहाँ से संपादक समाज का प्रबोधन करने का काम करता है. समाचार पत्र का प्रतिनिधि बनकर संपादक ‘संपादकीय’ में ही घटनाओं, प्रसंगों, मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत करता है. सत्ता को संकेत देने का दायित्व भी संपादक अपनी संपादकीय के माध्यम से निभाता है. पौष, शुक्ल पक्ष, त्रयोदशी (23 जनवरी) के अंक में सभी प्रकार के संपादकीय दायित्वों का निर्वहन रामलला की तस्वीर से हो जाता है. ‘स्वदेश’ का यह संपादकीय जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, राम के आदर्शों का अनुसरण करने का संदेश समाज के लिए है, सत्ता को संकेत है कि वह कर्तव्य पथ पर है. अब रामराज्य को साकार करना है.
‘स्वदेश’ ने 23 जनवरी, 2024 को प्रकाशित अपने संपादकीय ‘भारत और भारतीयता की मूर्तिमंत अभिव्यक्ति’ में अपने इस निर्णय के बारे में लिखा है – “श्री अयोध्या धाम में भगवान श्री राम आए, तब समूचा देश भाव-विभोर हो उठा. राम की भक्ति में सराबोर. रामत्व के आलोक से जगमग. जन-जन के चेहरे पर प्रतिज्ञा पूर्ति, प्रतिष्ठा पूर्ति और प्रतिक्षा पूर्ति से उत्पन्न संतुष्टि का भाव. राममय देश को देखकर यही कहना होगा कि श्रीराम, भारत का स्वाभिमान हैं. इस प्रसंग को अभिव्यक्ति देना, शब्दों का सामर्थ्य कहाँ… इसलिए हम श्री रामलला के नव विग्रह के मोहक दर्शन को ही आज स्वदेश की संपादकीय के रूप में अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. यही आज भारत की अभिव्यक्ति है, भारत का दर्शन है….” सच है, राममय देश को देखकर इससे अधिक और क्या अभिव्यक्ति की जा सकती थी.
‘स्वदेश’ की प्रसिद्धि राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के लिए है. स्वदेश ने सदैव ही जनांकाक्षाओं को समझकर राष्ट्रीयता को पुष्ट करने का काम किया है. राम की कृपा से रचा गया यह अनूठा प्रयोग भी राष्ट्रीयता को पुष्ट करने के महायज्ञ में एक आहुति है. स्वदेश को साधुवाद, उसने जनाकांक्षाओं का सम्मान किया और रामत्व को प्रतिष्ठा प्रदान की.