अधखिले ही चढ़ गए जो सुमन अपनी मातृभू पर.
स्वातन्त्रय उपवन की बहारें श्रद्धा सहित उन पर निछावर..
जीवन में संस्कार बोने की सबसे अनुकूल ऋतु है बचपन. इसीलिये प्रायः माता-पिता के संस्कारों का पूरा प्रभाव बच्चों में दिखाई देता है. सचमुच वे बच्चे कितने भाग्यशाली हैं, जिनका परिवार उन्हें सारे संस्कारों का शिरोमणि देशभक्ति का संस्कार बचपन से ही दे पाता है. यह घटना एक ऐसे ही परिवार की है. गुजरात के वडोदरा के पास एक गाँव है गोकुलपुरा. इसी गाँव में रहने वाले बच्छर भाई पांचाल का परिवार ऐसा ही था. सीधा-सरल स्वभाव, पर देशभक्ति की भावना जैसे रग-रग में रक्त बनकर बह रही थी. इसी परिवार में जन्मा था, बड़ी-बड़ी स्वप्नभरी आँखों वाला एक सुदर्शन शिशु, नाम था सोमा.
यह वह समय था, जब अंग्रेजी छापामार दस्ते निर्दोष भारतीयों को सताने का नित्यक्रम बना कर गाँव-शहर, गली-मुहल्ले, खेत-खलिहान में घूमते फिरते थे और किसी भी परिवार को अपने अत्याचारों का शिकार बना डालते. इस काम के लिए उनके पास कई मनमाने नियम-कानून और असंख्य बहाने होते थे. बाल नायक सोमाभाई भी इसी वातावरण में बड़ा हुआ. लेकिन वह ‘वन्देमातरम्’ का मोल, ‘भारत माता की जय’ की कीमत प्राणों से भी बढ़कर है, यह सीखते हुए ही बड़ा हो रहा था.
तब सोमा बहुत छोटा था. घर पर तिरंगा फहराने के अपराध में पड़ोस के घर में पुलिस आ घुसी. उस समय घर में कोई पुरुष न था. महिलाएँ अपने काम में लगी थीं कि गोरे सिपाही धड़ाधड़ घर में घुस गए और मारपीट करने लगे. छोटा सोमा यह तो नहीं जानता था कि पूरा मामला क्या है, पर ‘अंग्रेज हमारे दुश्मन हैं और ये हमें हमारा तिरंगा फहराने नहीं देते’ इतना उसे ज्ञान था. वह लपक कर पड़ोसी के घर पहुँचा और सिपाही की कलाई पर जोर से काट लिया. सिपाही बिलबिला उठा. उसकी बन्दूक नीचे गिर गई, तभी उस घर की वीरांगना गृहिणी ने बन्दूक उठा कर उसकी मूठ से ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया. अंग्रेज सियार इस सिंहनी के सामने बौखला गए और भाग खड़े हुए. नन्हें सोमा का साहस सारे गाँव में प्रशंसित हो गया.
बाद में, सोमा जब चौथी कक्षा में पढ़ रहा था, देश में अंग्रेज विरोधी आन्दोलनों की धूम मची हुई थी. सत्याग्रही जत्थे स्थान-स्थान पर जनसभाएँ करते, जुलूस निकालते. सरकारी भवनों पर तिरंगा लहराया जाना अंग्रेज सरकार के लिए कड़ी चुनौती बन चुका था.
18 अगस्त, 1942 को वडोदरा में एक विशाल जुलूस का आयोजन था. 15 वर्ष का हो चुका सोमाभाई भी अपार उत्साह के साथ जुलूस में आगे-आगे चल रहा था. स्थानीय कोढीपोल के पास अंग्रेजी फौज तैनात थी. ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा सुन दिशाएँ थर्रा रही थीं. अंग्रेजी सेना की टुकड़ी ने देशभक्तों पर बन्दूकें तान दीं. पलभर के लिए आगे बढ़ता अपार जनसमूह ठिठका. देशभक्ति के नारे अंग्रेज सैनिकों के क्रोध को आग में पड़े घी की भाँति बढ़ा रहे थे. उनका कप्तान गरजा – “रुक जाओ! आगे बढ़े तो गोलियों से भून दिए जाओगे”.
“हम ऐसी धमकियों से नहीं डरते. हम देश को आजाद कराने निकले हैं, वापस नहीं जा सकते”, सोमा ने तीखे और ऊँचे स्वर में चुनौती का उत्तर दिया.
कप्तान चीखा, “पागल है क्या छोकरे? भाग यहाँ से…..”
“महात्मा गांधी की जय” प्रत्युत्तर करारा था. इस बार जनसमूह के अनगिनत कंठों से भी देश की जय गूंजी. फिर, गोलियाँ बरसतीं रहीं, लाशें बिछती रहीं. क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या महिलाएं, क्या पुरुष-छाती पर गोली खाते देशवासी वन्देमातरम् बोलते जाते और भारत माता को अपने प्राणों के फूल चढ़ाते जाते. मातृभूमि पर अनेक जीवन विसर्जित होकर सार्थक हो गए. एक सन्तोष भरी मोहक मुस्कान बिखेरता 15 वर्ष का ‘सोमाभाई’ भी सीने पर गोली खाकर उन्हीं के बीच लेटा हुआ था. उसकी आँखें अनन्त को ताक रहीं थीं.
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है.)