रवि प्रकाश
सच्चाई यही है कि जब तक सरकार, सामाजिक संगठन व समाज एक साथ मिलकर काम करना शुरू नहीं करेंगे, तब तक न तो देश का और न ही देशवासियों का भला होगा. जिस दिन सरकार, समाज और सामाजिक संगठन मिलकर कदम बढ़ाना शुरू कर देंगे, उस दिन से देश के विकास की रफ्तार में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाएगी. इसका सकारात्मक असर देश के जनमानस पर भी पड़ेगा. दुनिया भर के देशों में व्यवस्थाएं या तो पूरी तरह सरकार के अधीन हैं, या पूरी तरह निजी हाथों के अधीन. कहीं कुछ गतिविधियों पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण है तो कहीं कुछ गतिविधियां सरकारी नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त हैं. जाहिर है, सरकार और सामाजिक संगठन के सहकार का प्रयोग, हम कह सकते हैं, अब तक किसी भी देश में नहीं किया गया है.
समाज के हित में समाज के लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाना और उसे क्रियान्वित करना सरकार का काम है. जिस दिन समाज अपने लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन कराना शुरू कर देगा, उस दिन सरकार और समाज दोनों ही विजेता होंगे. एक-एक कर सारी समस्याओं का निराकरण हो जाएगा और हम एक उज्ज्वल एवं सुनहरे भविष्य की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर देंगे.
सरकार योजनाएं बनाती है और उसके कर्मचारी उन योजनाओं का लाभ जनमानस को मिले, इसका प्रयास करते हैं. मगर आज तक ऐसा हो नहीं पाया है. यदि ऐसा होता तो हम पिछले 70 वर्षों से गरीबी हटाने के लिए योजनाएं नहीं बना रहे होते. गरीबी शुरू के दस साल में ही खत्म हो गई होती. मगर यह संभव नहीं हो पाया. विगत 70 वर्षों में लाखों योजनाएं बनी होंगी, मगर उन योजनाओं का लाभ चंद हजार लोग ही उठा पाए होंगे. यह कितनी बड़ी विसंगति है, कितनी बड़ी त्रासदी है.
ऐसा नहीं है कि योजना बनाने वाले इस त्रासदी के विषय में नहीं जानते हैं. वे जानते सब कुछ हैं, मगर कर कुछ नहीं पाते. जानते हुए कुछ कर न पाने के कारणों की मीमांसा होनी चाहिए. बाधक तत्वों की पहचान होनी चाहिए. पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने एक बार इस लाचारगी और बेचारगी का जिक्र किया था और उन्होंने कहा था, “ऊपर से भेजा गया एक रुपया नीचे पहुंचने तक 15 पैसा रह जाता है.” जब तक 85 पैसे का गबन करने वाले लोग हमारे बीच में रहेंगे, तब तक हमारा कल्याण नहीं हो सकेगा. ऐसा नहीं है कि राजीव गांधी से पहले इस बात का ज्ञान किसी को नहीं था और ऐसा भी नहीं है कि राजीव गांधी के बाद की सरकारों को इसका भान नहीं है. मगर कहीं कुछ तो है.
बात आती है कि सामाजिक संगठन किस तरह देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. इन संगठनों के अलावा बहुत सारे फाउंडेशन भी हैं, जो समाज के विकास में अलग-अलग स्तरों पर अपनी भूमिका निभा रहे हैं. ऐसे संगठनों को अपनी सोच के साथ-साथ अपनी कार्यप्रणाली को बदलने की जरूरत है. अब तक हम देखते आए हैं कि कोई भी सामाजिक संगठन किसी एक समस्या को लेकर किसी व्यक्ति विशेष, समूह विशेष और समुदाय विशेष की मदद करता है. यह मदद तात्कालिक होती है. इस तरह की मदद से समस्या जड़ से समाप्त नहीं हो पाती है. मदद करके मदद करने वाला खुश होता है. जिसको मदद मिलती है, वह भी उस समय खुश हो जाता है. कुछ समय के बाद पता चलता है कि समस्या ज्यों की त्यों बनी रह गई. कार्यक्रमों की रूपरेखा इस तरह तय करनी चाहिए कि उस व्यक्ति, समूह अथवा समुदाय की वह समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाए.
मैं यहां कुछ उदाहरण देना चाहूंगा, जिससे अपनी बात को समझा सकूं. मुंबई से सटा है पालघर जिला, यह वनवासी बहुल है. जिले में लगभग 10,000 लोग ऐसे हैं, जो थक चुके हैं. अब इनसे काम नहीं होता. इनके परिवार में भी कोई नहीं है, जिनकी कमाई पर इनका गुजर बसर हो सके. ऐसी स्थिति में भोजन का संकट हमेशा बना रहता है. अनेक सामाजिक संस्थाएं समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए सक्रिय रहती हैं. मगर स्थायी समाधान के लिए प्रयास कोई नहीं करता.
स्थायी समाधान के लिए सामाजिक संस्थाएं सरकारी योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लें तो चीजें बहुत आसान हो जाएंगी. यह मानने का तार्किक आधार भी है. इस आधार को समझने के लिए थोड़ा अतीत में झांकने पर हम देखते हैं कि करीब-करीब 200 वर्ष पहले अंग्रेजों ने एग्रीमेंट की आड़ में लगभग दास की तरह भारत से श्रमिकों को अपने अन्य उपनिवेशीय देशों में स्थानांतरित किया. यह सिलसिला आगे चल कर श्रमिकों के अपने मूल स्थान से पलायन के रूप में विकसित हो गया. पिछली सदी के आरंभिक दशकों में भारत में ही बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूरों का देश के दूसरे राज्यों में पलायन होने लगा. वह वही दौर था, जब भोजपुरी के अमर साहित्यकार भिखारी ठाकुर ने विदेसिया नाटक की रचना की थी. जिसमें पलायन के दर्द को उकेरा गया है. मोहनदास करमचंद गाँधी का भारत में आगमन हो चुका था. 1920-21 के आते-आते उनका राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलन अपने यौवन की चौखट पर पहुँच चुका था. आजादी की लड़ाई के नेताओं ने देश को उसी वक्त यह भरोसा दिलाया था कि आज़ादी मिलने के बाद पलायन के दंश से गरीब श्रमिकों को पीड़ित नहीं होना पडेगा. अंग्रेजों ने, जब उन्हें उचित लगा, आज़ादी दे दी. तब से 73 साल बाद गरीबी और पलायन कितना कम हुआ, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण कोरोना वायरस के प्रकोप के बीच लॉकडाउन में दारुण मानवीय त्रासदी के रूप में देश देख चुका है. 73 साल किसी देश की कायापलट के लिए कोई कम समय नहीं होता. लेकिन गरीबी, अशिक्षा, भूख, बीमारी, बेबसी और पलायन तथा गैरकानूनी शोषण में कहीं कोई प्रत्यक्ष कमी नहीं आयी. इस आधार पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत ने जिस अर्थव्यवस्था का मार्ग अपनाया है, उस मार्ग पर देश की समस्याओं का अंत करना सरकार के अकेले के वश की बात नहीं है. वरना, समस्याएं कम होने के बजाय इस तरह घनीभूत नहीं होती जातीं. सरकारी प्रणाली की मनमानी और भ्रष्टाचार की चक्की में आम लोग पिस रहे हैं. सरकारी योजनाओं का लाभ सही रूप में जनता तक नहीं पहुंच पाया. ऐसे में स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. ईमानदार प्रबंधन, समर्पित कार्यकर्ता, सैद्धांतिक निष्ठा आदि गुणों के कारण इन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए, उन्हें सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और जनता तक उन्हें पहुंचाने में सहभागी बनाया जाए तो आम जनता के जीवन स्तर में तीव्र गति से अविश्वसनीय उन्नति हो सकती है. यह संभव है.
भारत का सामाजिक-आर्थिक उन्नयन अगर होना है, तो वह ग्रामीण विकास के रस्ते ही संभव हो पाएगा. प्रोफेसर डी. एस.जाधव के अनुसार, भारत में, विकास का दायरा संकीर्ण नहीं है, बल्कि बहुत व्यापक है, क्योंकि इसमें न केवल आर्थिक विकास, बल्कि सामाजिक मोर्चे पर विकास, जीवन की गुणवत्ता, सशक्तिकरण, महिलाओं और बाल विकास, शिक्षा और अपने नागरिकों की जागरूकता शामिल है. विकास का कार्य इतना विशाल और जटिल है कि समस्या को ठीक करने के लिए सिर्फ सरकारी योजनाओं को लागू करना पर्याप्त नहीं है. इसे प्राप्त करने के लिए विभिन्न विभागों, एजेंसियों और यहां तक कि सामाजिक संगठनों से जुड़े समग्र दृष्टि और सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है.
सतही तौर पर, ग्रामीण विकास एक साधारण कार्य लगता है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. आजादी के बाद के युग ने विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कई ग्रामीण विकास कार्यक्रम देखे हैं. गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन, आय सृजन के लिए अधिक अवसर, और सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से बुनियादी सुविधाओं पर जोर दिया जाता है. बुनियादी सुविधाओं जैसे कि आजीविका सुरक्षा, स्वच्छता, शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, सड़क आदि के लिए लड़ाई अभी भी जारी है. बुनियादी ग्रामीण विकास में रोजगार, जलापूर्ति और अन्य बुनियादी सुविधाओं के अलावा सभी को शामिल किया जाना चाहिए. इन्हें संचालित करने के लिए हाथों की कमी नहीं होगी. अनेक संगठनों ने समाज को साथ लेकर ग्रामीण विकास के मॉडल स्थापित किये हैं.
भारत में सरकार ने छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के दौरान सामाजिक संगठनों की भूमिका का महत्व रेखांकित किया और सातवीं योजना (1985-90) में इनकी सक्रिय भूमिका को स्वीकार किया. विभिन्न समुदायों को आत्मनिर्भर बनाने में विभिन्न सामाजिक संगठनों ने आगे बढ़कर महती भूमिका निभाई है और इसके सकारात्मक तथा मापनीय परिणाम भी प्राप्त हुए. महाराष्ट्र के पालघर में, राजस्थान में, मध्य प्रदेश में और अलग-अलग जनजाति-बहुल इलाकों में विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में शानदार कार्य करने वाले सामाजिक संगठनों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है. सामाजिक और आर्थिक उन्नयन की दिशा में रोजगार की योग्यता बढ़ाने, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने और इस प्रकार बाज़ार में मांग बढ़ाने में सामाजिक संगठन सरकार के भरोसेमंद सहभागी बन सकते हैं. जब सरकार इस दिशा में सुविचारित ठोस कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए अपने हाथ सामाजिक संगठनों की ओर बढ़ाएगी तो स्वतः ही अनेक संगठनों के साथ जो विदेशी धन का लफड़ा पैदा हो जाता है, उसमें भी कमी आएगी. सरकार का सिरदर्द कम होगा, आम जनता का सामाजिक संगठनों के साथ तालमेल और परस्पर भरोसे का रिश्ता पैदा होगा, और सभी के सहयोगात्मक सामूहिक प्रयास से भारत अपनी कमजोरियों से बाहर निकल कर सामाजिक, बौद्धिक और आर्थिक रूप से एक नेतृत्वकारी सशक्त शक्ति के रूप में स्थापित होगा.
(लेखक के पास भारत विकास परिषद के पश्चिमी रीजन के रीजनल सेक्रेटरी (सेवा) का दायित्व है)