स्वतंत्रता के पश्चात सत्ताधीशों ने कम्युनिस्टों को अपने गुणगान और भारतीय इतिहास के साथ छेड़छाड़ का जो मनमाना लाइसेंस दिया, उसने भारत के सांस्कृतिक गौरव ही नहीं राष्ट्रनायकों को भी गुमनामी में डालने का काम किया.
भारत के प्रवेश द्वार हिमालय की कन्दराओं में स्थित पूर्वोत्तर क्षेत्र में भी ऐसे पराक्रमी वीर हुए, जिनकी जयगाथा गौरवमय इतिहास बना गयी. आज नयी पीढ़ी को उन गुमनाम और उपेक्षित नायकों के विराट व्यक्तित्व और अद्वितीय कृतित्व से परिचित करवाने की आवश्यकता है. इसी कड़ी में अरुणाचल प्रदेश में तवांग को भारत का हिस्सा बनाने वाले गुमनाम हीरो मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग के अप्रतिम योगदान का पुण्य स्मरण करते हुए 14 फरवरी को स्वंत्रता के सात दशक बाद अदम्य साहस और अद्वितीय पराक्रम को सम्मान दिया गया.
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, केंद्रीय खेल मंत्री किरण रिजिजू और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ब्रिगेडियर (अवकाश प्राप्त) बीडी मिश्रा की उपस्थिति में मेजर खातिंग के स्मारक का अनावरण किया गया. मेजर खातिंग के बेटे जॉन (सेवानिवृत्त आईआरएस अधिकारी) और अन्य पारिवारिक सदस्य उपस्थित रहे.
खातिंग की 5वीं तक की शिक्षा-दीक्षा एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में हुई थी. उनकी बौद्धिक क्षमता के कारण असम की तत्कालीन राजधानी शिलॉन्ग के सरकारी हाई स्कूल में पढ़ने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिला. गुवाहाटी के बिशप कॉटन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पाने वाले मणिपुर के पहले व्यक्ति थे, जो जनजातीय समुदाय से आते थे. इसके बाद असम के दर्राम स्थित बारासिंघा में एक स्कूल खोल कर पढ़ाने लगे. तब एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें उखरुल हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक बना दिया. सन् 1939 में दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने सेना में शामिल होने का फैसला लिया. 5 फीट 3 इंच के बॉब ‘किंग्स कमीशन’ पाने वाले पहले मणिपुरी थे. मणिपुर के महाराजा ने बर्मा के आक्रमण को ध्यान में रखते हुए भारत के साथ विलय का फैसला लिया और 1949 में ये एक भारतीय राज्य बना.
तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के सहायक राजनीतिक अधिकारी के तौर पर 17 जनवरी, 1951 को तवांग की तरफ मार्च किया. उन्होंने वहां के गांवों के बुजुर्गों से बात की, तिब्बत के अधिकारियों से मिले.
बिना खून की एक बूंद बहाए स्वतंत्र तिब्बत प्रशासन के नियंत्रण वाले तवांग क्षेत्र को भारतीय ध्वज के नीचे सम्मिलित करने का पराक्रम किया मेजर खातिंग ने. असम के तत्कालीन राज्यपाल जयरामदास दौलतराम के आदेश पर असम राइफल्स के 200 जवानों के साथ खातिंग ने देश को यह गौरव दिलाया था. उनके तवांग दौरे के दौरान ही प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने विदेश सचिव को एक पत्र लिखा. उन्होंने इस पत्र में लिखा था – “मैं लगातार रक्षा समिति द्वारा उत्तर-पूर्वी सीमाओं पर हो रही गतिविधियों के बारे में सुन रहा हूँ. इससे तिब्बत और नेपाल की सीमा पर हलचल है. इन मामलों को कभी मेरी राय के लिए मेरे सामने नहीं लाया गया. असम के राज्यपाल और अन्य लोग निर्णय ले रहे हैं. हमारे तवांग में जाकर वहां का नियंत्रण लेने से अंतरराष्ट्रीय समस्याएं आ सकती हैं, मैं पहले भी कह चुका हूँ. मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि बिना मेरी जानकारी के ये सब कैसे हो रहा है.”
नेहरु इस बात से अनजान थे कि भारत को शक्तिशाली बनाने के संकल्पी लौहपुरुष सरदार पटेल ने राज्यपाल जयरामदास दौलतराम और मेजर खातिंग को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि पीएम नेहरु से चर्चा किए बिना ही ये ऑपरेशन चलाया जाए.
1950 में मेजर खातिंग ने असम के तत्कालीन राज्यपाल अकबर हैदरी के निवेदन पर असम राइफल्स में सेवाएं दी. तब असम-तिब्बत भूकंप के कारण इलाके में काफी बुरी स्थिति थी.
उन्होंने मेजर केएस थिमैय्या (आज़ादी के बाद भारतीय सेना के प्रमुख) के नेतृत्व में प्रशिक्षण लिया और फिर 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में 7वीं कुमाऊं रेजिमेंट) में शामिल हुए. जोरहाट में लॉजिस्टिक्स अधिकारी के रूप में काम करते हुए उन्होंने यूएस आर्मी एयर फोर्सेज (USAAF) की जापान की सेना के खिलाफ सहायता की.
मेजर खातिंग इसके उपरान्त इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आईएएफएस) के पहले अधिकारी, नगालैंड के मुख्य सचिव और विदेश में आदिवासी समुदाय के पहले भारतीय राजदूत बने. ये सब उनकी योग्यता और प्रतिभा का फल था. उन्हें प्रशासनिक व सार्वजनिक जीवन में सेवा करने का सौभाग्य मिला. ब्रिटिश सरकार ने मेजर खातिंग को मेंबर ऑफ ब्रिटिश एंपायर सम्मान से भी सम्मानित किया था.
मेजर खातिंग को कभी भी तवांग की इस उपलब्धि के लिए सम्मानित नहीं किया गया. हालांकि देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से सम्मावनित किया गया था.