भारत और चीन के बीच जारी लंबी अस्थिरता के बीच सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गलवान घाटी में हिंसक सैन्य झड़प हुई थी, जिसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, ताकि आगे की रणनीति पर विमर्श किया जा सके और विपक्ष को स्थिति की जानकारी दी जा सके.
मामला राष्ट्रीय अस्मिता एवं संप्रभुता से जुड़ा था. अतः शामिल होने वाले सभी राजनीतिक दलों के विचारों पर जनता ने नजर बनाए रखी. चाइनीज वामपंथ के दोनों भारतीय संस्करणों यानि कि कांग्रेस और सीपीआई के अलावा सभी ने भारत की प्रभुसत्ता को सुरक्षित रखने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के साथ राष्ट्रीय एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राष्ट्रीयता के समर्पित विचार प्रस्तुत किए.
कांग्रेस के विचार और इतिहास पर इतनी चर्चाएं हो चुकी है कि कई लोग उस पार्टी के नाम में लगाए जाने वाले ‘ राष्ट्रीय ‘ शब्द को भी भूलते जा रहे है. जब सच्चाई सबके सामने आने लगी है तो भारतीय जनता भी यह मानकर चल रही है कि इस पार्टी के विचारों में कोई राष्ट्रीयता नहीं बची है. आने वाले दिनों में यह राजनीतिक दल अगर राजनीतिक विमर्श से ही गायब होने वाली पार्टियों में शामिल हो जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
कल की महत्वपूर्ण सर्वदलीय बैठक में वामपंथ ने एक बार फिर अपना दुश्चरित्र भारतीय जनता के सामने पेश किया जो दशकों से विभिन्न विमर्शों में करता आया है, इसका विश्लेषण किया जाना आवश्यक एवं प्रासंगिक है.
कॉमरेड सीताराम येचुरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की कुत्सित सोच की तह खोलते हुए जिस तरह से चीन की भाषा बोल गए, वह चीन के चरित्र से मिलता जुलता है, अनुषांगिक है. चीन और अमेरिका के रिश्ते हालिया दौर में सर्वविदित हैं, दोनों देशों के बीच जारी ट्रेड वॉर के बीच भारत में चीन के विचारों की वकालत करना और भारतीयता को चुनौती देना यहां के वामपंथियों की नियति बन चुका है. यह वामपंथ की वैचारिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है. राष्ट्रीय संप्रभुता को चुनौती देते हुए कम्युनिस्ट पार्टी का हालिया बयान स्पष्ट तौर पर यह दर्शाता है कि कम्युनिस्टों ने कभी भी भारत को एक राष्ट्र के तौर पर मान्यता नहीं दी और न ही कभी स्वयं को भारतीय माना. आज देश की परिस्थिति को देखते हुए भारत के जनसामान्य में जिस प्रकार का भाव है, विचार है, उससे ठीक विपरीत विचारों को प्रस्तुत करते हुए वामपंथ ने यह साबित कर दिया है कि उसके लिए भारतीयता से बढ़कर वामपंथ है.
यह पहली बार नहीं है, जब वामपंथ का काला चिट्ठा वामपंथियों ने खुद ही रखा हो, इससे पहले भी गाहे – बगाहे हर प्रकार के विमर्श में जनसामान्य को मूर्ख बताते हुए/ राष्ट्रीयता को चुनौती देते हुए दुर्बुद्धिजीवी वामपंथियों ने चीन के सुर में ताल मिलाया है. इतिहास के पन्नों को पलटिए, 1962 के उस कालखंड में जाइए जब चीन ने भारत पर हमला किया तो कम्युनिस्टों ने उसे हमलावर मानने से इंकार कर दिया और अपने कैडरों को निर्देश दिया कि चीन की मुक्ति वाहनी आ रही है. देशभर में उसका स्वागत किया जाए. वामपंथी कैडर चीनी सैनिकों को आर्थिक और वैचारिक संबल प्रदान करने में जी जान से जुट गए. अपनी ही माटी के लिए लड़ने मरने वाले भारतीय सैनिकों को चुनौती देने में जुट गए. उन तक पहुंचने वाली सेवाओं को रोकने का प्रयास किया गया.
चीन के खिलाफ लड़ रही भारतीय सेना की पीठ में छुरा घोंपते हुए वामपंथी श्रमिक संगठनों ने गोला-बारूद और हथियार कारखानों में हड़ताल करवा दी, ताकि भारतीय सैनिकों को हथियार और बारूद की आपूर्ति रूक जाए और भारतीय सैनिक चीनी सैनिकों के हाथों मार डाले जाएं. आपको जानकर हैरानी होगी कि दुनिया के इतिहास में यह पहली घटना थी, जब युद्ध के समय अपने ही सैनिकों को हथियार और बारूद की आपूर्ति हड़ताल करवाकर रोकी गई हो.
जब हम 1962 के भारत-चीन युद्ध में हार के कारणों पर चर्चा करते है, उसका विश्लेषण करते हैं तो गद्दार वामपंथियों को भी इस हार के लिए कम कसूरवार नहीं ठहराया जाना चाहिए, जिनकी हमदर्दी भारत में रहने के बादजूद चीनियों के साथ थी. युद्ध के दौरान जिस तरह वामपंथियों ने चीनियों का समर्थन व सहयोग कर अपने ही घर को लुटवाया, वह विश्व के इतिहास में देशद्रोह के सबसे शर्मनाक और घिनौनी करतूतों में शामिल है.
यह विचार आज भी भारत में जीवित है. इन विचारों को ताकत प्रदान करने के लिए भारत में दंगा फसाद, सांप्रदायिकता का सहारा लिया जा रहा है, हिंसात्मक योजनाएं बनाई जा रही है. उस सोच को समझिए जो जेएनयू से निकल कर सड़कों पर हंगामा काटती है. शरजील इमाम के उस भाषण पर गौर करें, जिसमें वो भारत के चिकेन नेक कहे जाने वाले क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए मुस्लिमों को खुलेआम उकसाते हुए पाया जाता है, असम को भारत से काटने की बात करता है ताकि हमारे सैनिक विकट परिस्थितियों में युद्धस्थल तक पहुंच ना सकें. यही विचार कभी हमारे असम को हमसे काटने की बात करता है तो कभी कश्मीर की आजादी की आवाज उठाता है. ये विचार हमारी सेनाओं के मनोबल को गिराने के लिए उन पर तमाम प्रकार के लांछन लगाता है. हमारे सैनिक जो भारत भूमि की रक्षा के लिए विरक्त भाव से सबकुछ त्याग कर सीमाओं पर डटे रहते हैं, उनको ये वामपंथी अपना दुश्मन मानते हैं.
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी की ढोंगी आवाज उठा कर डफली पीटने वाले वामपंथियों का विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि इन लोगों ने समय समय पर लोकतंत्र की जगह पर वामपंथी साम्राज्यवाद का समर्थन किया है, उसको वैचारिक मजबूती प्रदान की है. 1962 के युद्ध के वक्त बंगाल में “चीनेर चेयरमैन, आमादेर चेयरमैन” यानि चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन के नारे इसका ही उदाहरण हैं. वामपंथियों ने तब तो यहां तक दावा कर दिया कि ‘यह युद्ध नहीं बल्कि, समाजवादी और पूंजीवादी राज्य के बीच का संघर्ष है.’
युद्ध के उस कठिन समय में जब हमारे सैनिक दुश्मन से लड़ते लड़ते बलिदान हो रहे थे, तब भारत के कम्युनिस्टों ने जवाहरलाल नेहरू की जगह चीन के तानाशाह आक्रमणकारी माओत्से तुंग को भारत का प्रधानमंत्री तक कहा था. कम्युनिस्टों की ऐसी क्षुद्र देशविरोधी मानसिकता थी कि भारत पर कब्जा करने के बाद माओत्से तुंग भारत पर कम्युनिस्ट-तानाशाही राज कायम कर सत्ता की चाबी उन्हें सौंप देंगे.
1962 एक सीख के समान है, वामपंथ की हकीकत, उसके कलंकित वैचारिक इतिहास को करीब से जानने के लिए! दुर्भाग्य से हम सभी इस कुत्सित सोच को पूरी तरह से नहीं जान पाए हैं, या यूं कहें कि इंदिरा गांधी और वामपंथियों के बीच जिस प्रकार की संधि हुई, उसके कारण दशकों से वामपंथ के इतिहास से भारत को भ्रमित किया गया. बौद्धिक मोर्चे पर वामपंथ ने कांग्रेस को समय समय पर सहायता प्रदान की है, ऐसा करते हुए वे राष्ट्रीयता को किनारे लगाते हुए चीन की गोदी में बैठते हुए देखे गए हैं.
वर्तमान परिदृश्य में कांग्रेस के इस संस्करण ने अब सीधे तौर पर अंतरराष्ट्रीय वामपंथी संधियां करना शुरू कर दिया है. डोकलाम विवाद के समय राहुल गांधी का रवैया जीता जागता सबूत है, जब हमारी सेनाएं आमने सामने थीं और राहुल गांधी वामपंथी चीन से गुप्त वार्ता करते हुए “एक्सपोज” किए गए थे. राहुल गांधी द्वारा गलवान घाटी के मुद्दे पर भारत के राजनीतिक सैन्य प्रमुख को चीन की तरफ से चुनौती देना भी इसका ही उदाहरण है.
भारत के कम्युनिस्टों का चरित्र समय समय पर सामने आता रहा है. इसका किसी एक घटना के साथ जोड़कर ही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता. चीन के परमाणु परीक्षण के समय का ही अध्ययन कीजिए, आपको पता चलेगा कि भारत के वामपंथियों ने उसका स्वागत किया. लेकिन अपने ही देश भारत के परमाणु परीक्षण का जोरदार विरोध भी किया कि आखिर परमाणु शक्ति के मामले में भारत इनके बाप चीन के बराबर में कैसे बैठ सकता है.. !!
इस विचार का मूल्यांकन आजादी के पहले की घटनाओं पर भी किया जाना चाहिए, जब 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय पूरे देश की पीठ में इन वामियों ने छुरा घोंपा और ब्रिटिश सरकार का खुलकर समर्थन किया क्योंकि उस समय कम्युनिस्ट सोवियत संघ हिटलर के नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ ब्रिटेन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहा था.
दरअसल, किसी भी विचार का मूल्यांकन उसके नेताओं के चरित्र के कारण होता है. वामपंथ जिनको अपना आदर्श मानता है, उनके चरित्र का भी विश्लेषण प्रासंगिक है. वामपंथी कार्यालयों में टंगी कार्ल मार्क्स के साथ-साथ रूस के तानाशाह जोसफ स्टालिन की एक तस्वीर इनके हिंसात्मक विचार का प्रतीकात्मक प्रसार करती है. आपको पता होना चाहिए कि वामपंथी जिसको अपना आदर्श मानते हैं, वे तथाकथित विचारक प्रत्यक्ष तौर पर 4,00,000 (चार लाख) लोगों की नृशंस मौत के जिम्मेदार हैं. ये वामपंथी नारीवाद का ढोंग करते हैं, जबकि इनके आदर्शों ने अपनी पत्नी को भी मरवा दिया था. स्टालिन को आधुनिक युग का शैतान भी कहा जाता है.
कांग्रेसी और वामपंथी चीन के एजेंडे में शामिल हो जाते हैं. ऐसा करते हुए वे राष्ट्रीयता को विखंडित करते हैं, हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को चुनौती देते हैं, देश के प्रधानमंत्री का अपमान करने की आजादी का जश्न मनाते हैं. जागरूक नागरिक अपने अधिकारों के साथ कर्तव्यों का निर्वहन भी करते हैं. नागरिकों को अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को समझते हुए इस प्रकार के विचारों का प्रतिकार करना चाहिए.