उमेश चतुर्वेदी
जून के पहले हफ्ते में देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में एक खबर आई, चौबीस साल छोटी लिव इन पार्टनर की आरी से चीर कर हत्या, हत्या से मुंबई में सनसनी। कुछ अखबारों की खबरों का शीर्षक यह भी, सनसनीखेज हत्या से हिली मुंबई…लेकिन सवाल यह है कि क्या ये महज अखबारी सुर्खियां थीं, टेलीविजन चैनलों की हेडलाइन थी या सचमुच मुंबई हिली..पिछले साल मुंबई की ही लड़की श्रद्धा वाडकर की ऐसी ही हत्या की जानकारी दिल्ली को मिली, तो कुछ ऐसी ही टीवी और अखबारी सुर्खियां बनीं। लेकिन हकीकत यह है कि क्या ऐसी घटनाओं से सचमुच ये महानगर हिले, सचमुच वहां सन्नाटा पसरा। जब भी ऐसी
घटनाएं सामने आती हैं तो सन्नाटा होता है, सनसनी फैलती है..लेकिन सिर्फ महानगरों की गलियों तक। ऐसी घटनाएं गांवों में होती हैं तो सचमुच समूचे गांव में सन्नाटा होता है। हालांकि वहां भी स्थितियां बदल रही हैं।
जब भी ऐसी लोमहर्षक घटना होती है, एक सवाल जरूर उठता है कि आखिर ऐसी घटनाएं क्यों हो रही हैं। क्या आज का इन्सान इतने गुस्से में है कि वह जिसके साथ जीने-मरने की कसमें खाता है, जिसके साथ अपना सब कुछ साझा करता है, जीवन के कोमल तंतुओं को सहलाता रहता है, उसे ही इतने निर्मम तरीके से मार डाले। जब दुनिया में वैश्वीकरण की लहर चली, तब समझदारों ने इसके विरोध में आवाज उठाई। आवाज उठाने के मूल में उनकी चिंता थी कि वैश्वीकरण की आंधी अपने साथ भारतीय पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों को बहा ले जाएगी। मुंबई की घटना हो या फिर दिल्ली, उन्होंने इसी चिंता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन दुर्भाग्यवश हम इस ओर कुछ देर तक सोचते हैं, इसकी चिंता करते हैं, फिर वैश्वीकरण की आंधी में मिली आर्थकि ताकत, जीवन जीने के साधनों के साथ मौजमस्ती के साथ आगे बढ़ चलते हैं। जबकि होना कुछ और चाहिए था। हम भूलते चले गए कि भारत अगर अतीत में सोने की चिड़िया था, अगर वह विश्व गुरु था, अगर उसकी संस्कृति को महान माना गया तो उसकी वजह रहे उसके
पारिवारिक मूल्य और संस्कार। वैश्वीकरण की आंधी में वे सारे मूल्य और संस्कार बहते चले गए।
आज स्थिति यह है कि संस्कारों से हम दूर होते जा रहे हैं। विशेषकर हिंदू समाज में अपने पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों की बात करना अतीतोन्मुखी माना जाने लगा है। मूल्यों की ओर लौटना प्रगतिशीलता के उलट माना जाने लगा है। इसकी वजह से आपसी रिश्ते लगातार छीजते जा रहे हैं। यह कड़वा सच है कि वर्तमान परिदृश्य में मानवीय मूल्यों की परवाह समाप्त हो चुकी है और नई पीढ़ी की निगाह में रिश्ते ज्यादा मायने नहीं रख रहे। महानगरों में तो इसकी वजह से पड़ोसी तक एक-दूसरे को जानते नहीं हैं, अनजान की तरह रहते हैं। महानगरों के बारे में कहा जाता है कि महानगर की आंखें दीवार का काम करती हैं, जबकि गांवों की आंखें निगहबानी करती हैं। यही वजह है कि अब महानगरों में लोग उद्दाम ढंग से व्यवहार कर रहे हैं। अगर किसी ने इसका विरोध कर दिया तो उसे दकियानूसी समझ लिया जाता है। दरअसल महानगरीय जिंदगी में संस्कारों और मूल्यों की कमी की वजह से किसी के पास किसी की तरफ देखने की फुर्सत नहीं है। कोई अनहोनी हो जाए तो किसी का साथ या सहयोग मिल पाएगा, इसका भरोसा भी नहीं किया जा सकता है। सब कुछ पा लेने पर भी आदमी अपने को अकेला पा रहा है। आज हर कोई असंतुष्ट दिख रहा है, व्यवस्था से, समाज से, मित्रों-परिचितों से और अपने आप से। इस सबकी वजह संस्कारों का अभाव है।
जहां इतना अजनबीपन हो, वहां अपराध का घटित होना आसान हो जाता है। अजनबीयत ना हो तो तय है कि पड़ोसी भी देखता कि आखिर कोई किस संकट से गुजर रहा है। लेकिन चूंकि अब दूसरे की तरफ हम अपने संस्कारों की वजह से देखते तक नहीं, इसलिए कोई मनोज साने सरस्वती वैद्य को मुंबई के अच्छी कालोनी वाले अपने फ्लैट में चीर देता है या कोई आफताब किसी श्रद्धा वाडकर को दिल्ली में चीरकर फ्रिज में रख देता है, वक्त मिलते ही जंगल में उसकी हड्डियां फेंक देता है। इसी वजह से बुजुर्गों को घर में घुसकर मार दिया जाता है। ये सब महज कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि इसके मूल में पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों का तिरोहित होते जाना है। हम अपने ही परिवार के बुजुर्गों की उपेक्षा कर रहे हैं, उनका अकेलापन बढ़ रहा है। इसके लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह तो हमारे पारिवारिक मूल्यों के तिरोहित होने का ही नतीजा है। सामाजिक संबंधों के साथ-साथ परिवार के आत्मीय रिश्तों से जुड़े सरोकार भी बहुत कमजोर पड़ रहे हैं। रक्त संबंधों के साथ में अब नातेदारी तथा रिश्ते भी स्वार्थ की आग में झुलसने को मजबूर हैं।
परिवार के आत्मीय संबंधों पर चोट करने वाली तमाम घटनाएं आज देखने में आ रही हैं। पति-पत्नी के बीच या परिवार व समाज के आत्मीय संबंधों से जुड़ी ये सभी घटनाएं सीधे-सीधे सामाजिक ढांचे की दीवारों के दरकने के ही संकेत हैं। ऐसी घटनाएं संयुक्त परिवार की टूटन, रक्त संबंधों में बिखराव तथा रातों-रात सफलता के उच्च शिखर पर पहुंचने की लालसा जैसे कारणों के चलते भी हो रही हैं। हमें यह मानने से
गुरेज नहीं करना चाहिए, तकनीक के वर्चस्व से भी मूल्य बदल रहे हैं, इसकी वजह से पूंजी के रूप में भी बदलाव है। रही-सही कसर सोशल मीडिया के दैत्य की तरह हो रहे विस्तार ने पूरा कर दिया है। इसका असर हमारे रिश्तों पर भी पड़ रहा है कि आज हर रिश्ता तनाव के दौर से गुजर रहा है। वह चाहे माता-पिता का हो या पति-पत्नी का, भाई-बहन का हो या दोस्त का, और तो और दफ्तरों में अधिकारी व कर्मचारी के बीच भी सहज रिश्ते नहीं रहे। सबके बीच कह सकते हैं कि सहजता नहीं रही, बल्कि शीत युद्ध का सा भाव है।
हमारे धर्म ग्रंथ कहते रहे हैं कि करुणा, दया ही परम ब्रह्म है। धर्म का दूसरा नाम है करुणा एवं दया है और दया के अभाव से धर्म नष्ट होता है। धर्म कोई वस्तु नहीं है, इसे समझना जरूरी है। वैश्विक स्तर पर, वैश्वीकरण की तरफ बढ़ती निर्भरता के बावजूद आज की दुनिया अधिक खंडित लगती है। आज अमीर और गरीब के बीच दूरी बढ़ी है। शक्तिशाली और शक्तिहीन के बीच भी दरार बढ़ी है। कहा जा रहा है कि पहले की तुलना में आर्थिक रूप से, राजनीतिक और तकनीकी रूप से, दुनिया कभी भी अधिक स्वायत्त है। लेकिन क्या उसका मानव जीवन पर बेहतर असर पड़ रहा है? निश्चित तौर पर इसका जवाब न में है। दरअसल ना तो अब शिक्षा में और ना ही परिवार में, हम संस्कार को पढ़ा रहे हैं, ना ही पारिवारिक मूल्यों को जी रहे हैं। इसलिए आज नैतिकता और संस्कार लगातार छीज रहे हैं। जबकि अतीत में ऐसा नहीं था। तब नैतिक दृष्टिकोण का मतलब मानवीय कार्यों को अच्छे या बुरे, सही या गलत, नैतिक या अनैतिक के रूप में देखा-परखा जाता था। लेकिन अब संस्कारहीनता और मूल्यहीनता के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। नैतिक मूल्य धीरे-धीरे वर्षों में कम होते जा रहे हैं, क्योंकि अधिकांश युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इन नैतिक मूल्यों की अवहेलना कर रही हैं।
बढ़ता भौतिकवाद लोगों को लालची बना रहा है। उपभोक्तावाद माहौल को खतरे में डाल रहा है। अनैतिक प्रथाओं के कारण सामाजिक जिम्मेदारी मिट रही है। आज युवाओं के लिए पतित मूल्यों के लिए बहुत महत्वपूर्ण कारक यह संस्कारहीनता ही है। संस्कार हमें जीवन जीने का ढंग सिखाते हैं, वे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रवाहित होते रहे। लेकिन अब वे ही खत्म हो रहे हैं। इसलिए समाज और नैतिकता के प्रति आग्रह खत्म होता जा रहा है। समाज और नैतिकता की परवाह आत्मबोध से होता है, उसके लिए कोई कानून किसी को जवाबदेह नहीं बना सकता। आत्म नियंत्रण, आत्म चेतना और आत्म बोध को विस्तार और
स्वाग्रही संस्कार और परिवार से मिलते रहे मूल्य बनाते रहे हैं। गांवों की सामाजिक संरचना लोगों की आंखों में पानी भरने का प्रतीक रहीं। नैतिक और सामाजिक बंधन में मनुष्य तब बंधा रहता था। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। पहले वैश्वीकरण के साथ आए मूल्य और बाद में सोशल मीडिया के उद्दाम व्यवहार ने इसे खत्म कर दिया है। इसलिए अब दुनिया में किसी को किसी की परवाह नहीं है। उसे अपने आत्मीय तक की परवाह नहीं रही। इससे हम तभी बच सकेंगे, जब सदियों से जारी अपनी परंपरा की ओर उन्मुख होंगे, संस्कारों को जगाएंगे, अपनी आध्यात्मिक चेतना को विस्तारित करेंगे। फिर परिवार भी बचेगा, नैतिकता भी जागेगी और समाज भी बचेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या मौजूदा वैचारिकता की धारा में हम ऐसा कुछ सीख पाएंगे ?